यह आलेख मासिक पत्रिका "गर्भनाल" के मार्च 2022 अंक में छप चुका है, देखें यहाँ
कोई परिचित मुझसे पूछ सकता है – सुना है तुम लोगों से कहते फिरते हो कि तुम्हारे पास कैंसर का एक कारगर उपचार है... बात बड़ी बेतुकी लगती है हम सब को. चिकित्सा के क्षेत्र में तुम्हारे पास एम बी बी एस, एम डी, जैसी कोई डिग्री नहीं. और न तुम किसी कैंसर शोध संस्थान से सम्बद्ध. तुमने जैविकी विषय तक किसी पाठ्यक्रम में कभी नहीं पढ़ा. तुम तो 1975 के आस पास यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया, UCLA में कैमिस्ट्री में पीएचडी करने गए थे. उससे कैंसर का क्या सम्बन्ध? ...अरे, विश्व में न जाने कितने कैंसर संस्थान हैं, लाखों इस विषय पर शोध कर रहे हैं. वे अधिक कुछ कर नहीं पा रहे... और तुम अनोखे पैदा हुए हो कि ऐसे भीषण, ऐसे दुःसाध्य रोग से निवारण का नुस्खा ढूंढ़ निकाला है!
यह लेखक बिना सकपकाए, किंचित आत्मविश्वास से उत्तर देगा – मैं अपने को अनोखा न कहूंगा पर कैंसर रोग निश्चित रूप से अनोखा है – दूसरे लगभग सभी रोगों से अलग. हमारे अधिकांश रोगों के मूल में सूक्ष्म जीव (microbe) होते हैं – जीवाणु (bacteria), वायरस, आदि. पर कैंसर की उत्पत्ति का कारण प्रायः कंटक (toxic) रसायन पदार्थ होते हैं जिन्हें कैंसर-कारक (Carcinogens) कहा जाता है. यह तो हम सभी जानते हैं कि तम्बाकू के सेवन से ऐसे कुछेक घातक रसायन हमारे शरीर में पहुंचते हैं. अतः किसी रसायनज्ञ (chemist) की कैंसर के क्षेत्र में कुछ पहुँच या परख हो तो आश्चर्य कैसा?
परिचित – ठीक है... पर भला तुमने – जो पिछले चार दशक में कभी किसी वैज्ञानिक या वैद्यिक (medical) संस्थान से न जुड़ा हो – ऐसा क्या पता लगा लिया कि जिसे हजारों-लाखों, डिग्रियों से लदे, लम्बे समय से सतत रत, कैंसर शोधक न देख पाए?
लेखक – बात approach या उपागम की है.
कैंसर की गुल्थी सुलझाने के लिए इस रोग को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है: वंशाणु (genes) की दिशा से अथवा जीवरसायनी (biochemistry) की दिशा से. पर पिछले 5-6 दशकों से वंशाणु (genes)-केन्द्रित दृष्टिकोण, जो molecular biology के अन्तर्गत आता है, का वर्चश्व रहा है. ऐसा क्यों हुआ यह समझना सहज है. इसे बताने के लिए molecular biology या आण्विक जैविकी की कुछ बात करनी होगी. आप सुनना चाहेंगे?
परिचित – सुनाओ. समझने का प्रयत्न करूंगा.
लेखक – वंशाणु DNA अणुओं (molecules) के बने होते हैं. सन् 1953 में वाटसन एवं क्रिक (Watson & Crick) ने DNA अणु की द्विकुंडलिनी (Double Helix) संरचना का पता लगाया. (देखें साथ का चित्र जो आपने पहले भी कई स्थानों पर देखा होगा.) अगले एक-दो दशक में यह स्पष्ट हो गया कि आनुवांशिक जानकारी इस अणु में कैसे संजोयी जाती है. फिर 1971 में कैंसर शोध के क्षेत्र में एक बड़ी घटना हुई – उस वंशाणु (gene) का पता चला जिसके टूटे या लापता होने पर सदा retinoblastoma (बच्चों की आँख का) कैंसर पाया जाता है. क्षत-विक्षत या विक्षत्ती वंशाणु (mutated genes) यों भी लगभग सभी कैंसरों में देखे जाते थे. बस फिर क्या था! सभी शोधकर्ता कैंसर सम्बन्धी वंशाणुओं के अध्ययन में जुट पड़े. वंशाणु-केन्द्रित दृष्टिकोण का आधिपत्य हो गया.
परिचित – फिर तो शीघ्र ही प्रत्येक कैंसर से सम्बन्धित वंशाणुओं का पता चल गया होगा.
लेखक – आशा ऐसी ही थी. पर ऐसा हुआ नहीं. आज, 50 वर्ष बाद भी, वह शिशु-नेत्रों का कैंसर retinoblastoma इकलौता कैंसर है जिसका किसी वंशाणु से सीधा सम्बन्ध है.
परिचित – अरे, सीधा न सही, घुमावदार या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तो होगा ही दूसरे कैंसरों का.
लेखक – वे सम्बन्ध हैं भी तो अत्यन्त क्षीण...
उन सम्बन्धों को ढूंढ़ने के प्रयास में वंशाणुओं को दो भागों में बाँटा गया – एक रक्षात्मक, दूसरे आक्रामक. पहले वंशाणु वे जो कैंसर को थामते हैं (tumor suppressor genes), दूसरे वे जो mutated या विक्षत्ती वंशाणु हो कर कैंसर को बढ़ाते हैं (oncogenes).
ध्यान दें कि शिशु-नेत्रों के कैंसर वाला वंशाणु पहली श्रेणी का है. यथा कैंसर उसकी उपस्थिति में नहीं, उसके अभाव में होता है. इससे मिलते जुलते 5 और वंशाणु पहचाने गए जिनमें जन्मजात त्रुटि हो सकती है पर उनके टूटे या लापता होने से कैंसर होना जरूरी नहीं, केवल कैंसर होने की संभावना कुछ बढ़ जाती है. अतः उन्हें कैंसर प्रवण syndromes कहते हैं. ऐसे कैंसर अत्यन्त विरल हैं. स्तन कैंसरों में भी 5-10 प्रतिशत का सम्बन्ध ऐसे जन्मजात वंशाणुओं से माना जाता है जिनके बिगड़े होने से कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है, रोग हो यह निश्चित नहीं.
यह महत्वपूर्ण है कि कुल कैंसरों में 90% से अधिक का सम्बन्ध दूसरी श्रेणी के विक्षत्ती वंशाणुओं (oncogenes) से जोड़ा जाता है. उनकी कहानी बिल्कुल गई बीती है. एक ही ट्यूमर में एक स्थान पर एक तरह के विक्षत्ती वंशाणु और दूसरे स्थान पर दूसरे. अन्य व्यक्ति को उसी कैंसर में कुछ और ही. मानो एक युद्ध के बाद प्रत्येक सैनिक अलग-अलग ढंग से घायल...
आश्चर्य नहीं कि वंशाणु-केन्द्रित सोच वाले कैंसर शोधकर्ता अटके पड़े हैं... हाँ, जीविका उपार्जन अच्छा हो रहा है.
परिचित – इन निराशाजनक परिणामों को देखते क्या पुनर्मूल्यांकन की माँग नहीं की गई?
लेखक – अवश्य की गई.
पर पहले यह जान लीजिए कि 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने “कैंसर के विरूद्ध संग्राम” की घोषणा की थी. जिस तरह सन् 1961 में राष्ट्रपति कैनेडी ने एक दशक के अन्दर चाँद पर पहुँचने का लक्ष्य निर्धारित किया था जिसे अमेरिकी वैज्ञानिक और अभियंताओं ने पूरा कर दिखाया था, उसी तरह आशा बंधी कि भरपूर संसाधन देने पर वहाँ के वैज्ञानिक और चिकित्सक शीघ्र ही इस भयावह रोग पर विजय पा लेंगे. कैंसर शोध के लिए अब धन का कोई अभाव न था.
इसलिए जब 10 नहीं, 20 वर्षों बाद भी कैंसर की गुल्थी बनी रही, तो 1994 में Scientific American पत्रिका ने पूछा :
“Have the [cancer] researchers and clinicians been barking up the wrong trees…?”
(क्या कैंसर शोधकर्ता गलत मार्ग पर भटक रहे हैं...?)
पर कैंसर शोध की दिशा न बदली. वंशाणु-केन्द्रित सोच का बोल बाला इस उम्मीद में बना रहा कि शायद कुछ और विक्षत्ती वंशाणु खोजने पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. इस उद्देश्य से सन् 2006 में अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान NCI (National Cancer Institute) ने The Cancer Genome Atlas (TCGA) अभियान छेड़ा जिसमें 33 प्रकार के 20,000 कैंसरों के वंशाणुओं का अध्ययन हुआ. अब विक्षत्ती वंशाणुओं का अम्बार लग गया. पर इस जानकारी में भी कोई तारतम्य न दिखा. कैंसर रोग कैसे प्रारम्भ होता है, कैसे फैलता है, इस बारे में कोई अर्थपूर्ण निष्कर्ष न निकाले जा सके. रोग जितना अभेद्य पहले था उतना इन प्रयत्नों के बाद भी.
परिचित – और तुम्हारा क्या उपागम या दृष्टिकोण है कैंसर की गुल्थी सुलझाने का? तुम्हारी तरह सोचने वाले क्या और नहीं हैं?
लेखक – मैंने biochemistry या जैव-रसायनी की दिशा से कैंसर को देखा जहाँ enzymes या किण्वक अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि वे जैव कोशिकाओं में हर परिवर्तन की मध्यस्थता करते हैं. पर इस विषय के विस्तार में जाने से पहले, मैं DNA संरचना के सह-अन्वेषक डा. वाटसन, जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है, के साथ के अपने किंचित अनुभव के बारे में बता दूँ.
डा. वाटसन ने न्यूयार्क की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था Cold Spring Harbor Laboratory के प्रधान रह कर 40 वर्ष (1968-2007) आणुविक जैविकी (molecular biology) के क्षेत्र में शोध का निर्देशन किया, जहाँ सबसे अधिक जोर था कैंसर सम्बन्धी वंशाणुओं के विधिवत अध्ययन पर.
मैंने 1993 में अपने आलेख ‘कैंसर की उत्पत्ति में एक किण्वन की भूमिका’ पर उनसे मिलकर विचार-विमर्श करना चाहा. अन्ततोगत्वा उन्होंने समय तो दिया पर उस 10 मिनट की बैठक में वे यह मानने को तैयार न हुए कि कैंसर में जैव-रसायनी की प्रमुख भूमिका हो सकती है. बस विभिन्न विक्षत्ती वंशाणु के बारे में ही बताते रहे. मैं निराश लौटा.
पर 23 वर्ष पश्चात मैं भौंचक्का रह गया, और हर्षित भी हुआ जब 12 मई, 2016 के New York Times में उनका यह कथन पढ़ा -
locating the genes that cause cancer has been "remarkably unhelpful”… If he were going into cancer research today, he would study biochemistry rather than molecular biology.
(उन वंशाणुओं का पता लगाना जिनसे कैंसर होता है "विशेष रूप से अनुपयोगी" रहा है... यदि वह आज कैंसर शोध में जा रहे होते, तो वे आणुविक जैविकी के बजाय जैव-रसायनी का अध्ययन करते.)
अब उनसे सम्पर्क करना व्यर्थ था. वे 88 वर्षीय और अवकाश-प्राप्त थे.
अब लौटता हूँ कैंसर-उत्पत्ति सम्बन्धी अपने विचारों पर. रसायनी और जैव-रसायनी विषयों में जाना होगा. आप ऊब न उठें...
परिचित – नहीं नहीं, कोशिश करूंगा समझने की.
लेखक – पहले रसायनी विषय मुक्त-मूलक (free radicals) की बात करता हूँ. इन्हें छड़ा (अविवाहित) समझिए विवाहितों के विराट समुदाय में.
Electronics और electricity शब्दों से भला कौन परिचित नहीं? इन सब का आधार स्पष्टतः electrons या विद्युकण हैं. हर परमाणु (atom) में एक या अधिक विद्युकण होते हैं जो उसकी संरचना का बाहरी अंश होते हैं. जब विभिन्न परमाणु एक दूसरे से मिलकर अणु (molecule) बनाते हैं तो वे या तो विद्युकणों का आदान प्रदान करते हैं या साझा. अभीष्ट एक ही होता है कि विद्युकणों की जोड़ी बने. यों लगभग हर पदार्थ की संरचना में सर्वत्र जोड़ीदार विद्युकण होते हैं, पर अति-विरले अपवाद भी मिल जाते हैं जहाँ विद्युकण अकेला अथवा मुक्त होता हैं. इन्हें मुक्त-मूलक कहते है. सामान्यतः ऐसे पदार्थ अत्यन्त अस्थिर और प्रतिक्रियाशील होते हैं.
और यदि विद्युकण बड़े समूह में हों तो वे विद्युत धारा अथवा बिजली बन जाते हैं. (यहाँ यह बताने में एक विशेष राज है, जो थोड़े समय में खुलेगा.)
यदि यह जानकारी पच गई हो तो आगे बढ़ूँ?
परिचित – बढ़ो.
लेखक – अब बताऊंगा कि किण्वक (enzyme) क्या होते हैं और कैंसर क्या है.
पृथ्वी का हर जीव-जन्तु विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं (cells) का समूह है और किसी भी कोशिका में जो कुछ भी घटता है, वह एक या अधिक किण्वकों की बदौलत ही घटता है. ये किण्वक प्रधानतः प्रोटीन के बने होते हैं और जैव-उत्प्रेरक (biological catalyst) का काम करते हैं. बिना इन उत्प्रेरकों के जैव-रसायनी की कोई प्रतिक्रिया संभव नहीं !
अब कैंसर के बारे में – हमारे शरीर की अधिकांश कोशिकाएं देर-सबेर विभाजित होती हैं यथा एक से दो बनती हैं. (हृदय की कोशिकाएं इसका अपवाद हैं, इसीलिए हृदय का कैंसर नहीं पाया जाता.) कोशिकाओं के अनियंत्रित विभाजन अथवा निरंकुश बढ़ाव को कैंसर कहते हैं.
अब एक विशेष किण्वक और उसकी संरचना (structure) की बात करनी है. यह इस वार्तालाप का सबसे जटिल वैज्ञानिक विषय है. बस उसके बाद शेष बातों को समझना सहज होगा. आप ध्यान से सुन रहे हैं ना?
परिचित – तुमने कहा है तो अधिक सचेत हो गया हूँ.
लेखक – एक कोशिका के विभाजन की प्रक्रिया में अनेक चरण होते हैं और प्रत्येक चरण के समापन का उत्तरदायी एक किण्वक. कोशिका विभाजन या वृद्धि की प्रक्रिया में जिस किण्वक की केन्द्रीय भूमिका होती है उसका नाम है Ribonucleotide Reductase अथवा RnR. एक साधारण स्वस्थ अंग में RnR किण्वकों की संख्या बहुत कम होती है परन्तु कैंसर-ग्रस्त अंग में इसकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है. अन्य किसी किण्वक की गतिविधि में इतना अन्तर नहीं देखा जाता.
यों तो हर किण्वक प्रोटीन – जो अमीनो अम्ल के गुच्छे होते हैं – का बना होता है, अधिकांश किण्वकों की संरचना में एक “कर्म-स्थल” (active-site) भी होता है. किण्वक के कर्म-स्थल को कुछ ऐसा ही समझिए जैसे लुहार की दुकान में निहाई (जिस पर रखकर गर्म लोहे को पीटा जाता है), अथवा पेन में निब या हल में फाल की नोंक. इस RnR किण्वक का कर्म-स्थल अनूठा है. वहाँ एक मुक्त-मूलक उपस्थित है जिसके एकाकी विद्युकण को पास के दो लोहे के परमाणु स्थिर बनाए रखते हैं.
यदि RnR किण्वक के कर्म-स्थल को कोई क्षति पहुँचे – लोहे के परमाणु न रहें अथवा विद्युकण न रहे – तो यह किण्वक नपुंसक हो जाता है, यथा इसकी सारी क्रियाशीलता समाप्त.
दूसरी ओर, यदि किसी कारण RnR किण्वकों की मात्रा बहुत बढ़ जाए तो कोशिकाएं बेकाबू फैलतीं हैं और कैंसर होता है.
मैंने 1993 के आलेख में दिखाया था कि कैंसर-कारक (Carcinogens) पदार्थ RnR किण्वक के कर्म-स्थल को भड़काने की क्षमता रखते हैं, अतः कैंसर रोग का कारण बनते हैं. मैं डा. वाटसन के अलावा अन्य वैज्ञानिकों से भी मिला. (कइयों को लिखा भी.) एक वरिष्ठ वैज्ञानिक झुंझलाकर बोले - अरे, क्या अन्तर पड़ता है कि कैंसर किस तरह प्रारम्भ होता है. कैंसर रोगियों को देखो. कितने तड़प रहे हैं, कितने मर रहे हैं. उन्हें उत्पत्ति का कारण नहीं, उपचार चाहिए!
परिचित – ठीक ही कहा था उन्होंने. फिर तुमने क्या सोचा, क्या किया?
लेखक – उपचार सोचने के लिए भी मैंने उसी RnR किण्वक पर ध्यान केन्द्रित रक्खा.
कैंसर का अशुभारम्भ कैसे होता है इस बात पर भले ही बड़े मतभेद हों, पर इस बात पर सभी कैंसर विज्ञ एकमत हैं कि यदि RnR किण्वक की सक्रियता पर रोक लग जाए, तो कैंसर रुक जाएगा.
1970 के दशक से ही वैज्ञानिक ऐसी कीमो दवाइयाँ (chemotherapeutic drugs) बनाने में लगे हुए हैं जो इस किण्वक की गतिविधि पर रोक लगा सकें. (1976 में इस विषय के एक शोधपत्र से ही मैं इस किण्वक से परिचित हुआ था.) पर ये दवाएँ आंशिक रूप से ही सफल होती हैं तथा स्वस्थ अंगों के लिए पीड़ादायक और विषैली हैं.
मुझे सूझा कि क्यों न कैंसर में एक हल्की सी विद्युत धारा प्रवाहित की जाए. RnR किण्वक के कर्म-स्थल के एकाकी विद्युकणों को जोड़ीदार मिल जाएंगे अथवा वे स्वयं बिजली की धारा के साथ बह निकलेंगे. मुक्त-मूलक की मृत्यु और किण्वक की सक्रियता ठप्प. कैंसर का बढ़ना बन्द!
परिचित – पर यह तो एक विचार मात्र था. क्या प्रमाण कि वास्तव में ऐसा हो सकता है?
लेखक – हाँ उस समय यह hypothesis या प्रधारणा ही थी. मुझे वैद्यिक (medical) पुस्तक-पत्रिकाओं में खोजना खखोलना था कि क्या कभी किसी ने कैंसर में बिजली प्रवाहित करके देखा है.
यह 1994 की बात है. मेरे हाथ आई डा. रोबर्ट ओ. बैकर लिखित पुस्तक ‘Cross Currents: The Perils of Electropollution, the Promise of Electromedicine’ (प्रतिकूल धाराएं : विद्यु-प्रदूषण के संकट, विद्यु-वैद्यकी से आशाएं). इसमें ब्रिटिश वैद्यिक पत्रिका Lancet में 1880 में छपी एक किसान की विचित्र कहानी थी जिसका होठ-ठोड़ी का कैंसर उस पर आकाश से गिरी बिजली पड़ने के बाद – जिससे वह मूर्छित भर हुआ था – ठीक हो गया था.
साथ ही इस पुस्तक में उल्लेख था कैंसर विद्युचिकित्सा के आधुनिक प्रथम प्रयास का जिसके लाभप्रद फल 1959 में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका Science में छपे थे. मैंने झट जाकर UCLA के Biomed पुस्तकालय में इस आलेख को पढ़ा और इसके संदर्भ से इस विषय पर तब तक प्रकाशित 9 अन्य शोध-पत्रों का भी पता लगाया. विशेष हर्ष की बात थी कि वे सभी मेरी उपर्युक्त प्रधारणा की पुष्टि करते थे. लगभग आधे प्रयोगों का परिणाम विशेष सकारात्मक न था क्योंकि उन्होंने अधिक विभव (voltage) पर बिजली प्रवाहित की थी जिससे हानिकारक विद्यु-रसायनी (electrochemistry) हुई थी और मुक्त-मूलक नष्ट करने के लिए विद्युकण भी न बचे थे. यह भी मेरी प्रधारणा का समर्थन ही था क्योंकि किण्वक को निष्क्रिय करने के लिए विशुद्ध विद्युचिकित्सा (जहाँ रसायनी न हो) वांछित है जो अल्प विभव की मृदुल बिजली की धारा से ही संभव है.
इन दस आलेखों में श्रेष्ठ था सन् 1985 में “Cancer Research” पत्रिका में छपा विवरण. इसके अनुसार प्रतिदिन 1 घंटा, 5 दिन तक हल्की विद्युत धारा प्रवाहित करने पर मूषकों का ट्यूमर 98% घट गया था, यथा लगभग पूरा नष्ट.
परिचित – तब तो आप बल्लियों उछलने लगे होंगे?
लेखक – नहीं, वह दिन आज 29 वर्ष बाद भी नहीं आया.
हाँ, अब पूरा आत्म विश्वास हो गया था कि मेरे पास कैंसर रोकने की विधि है. और यह भी कि यह विधि प्रत्येक कैंसर पर लागू होगी क्योंकि जैव-रसायनी स्तर पर उनमें कोई भेद नहीं.
मैंने बड़े उत्साह से लेखक डा. बैकर को फोन किया. उन्होंने मेरे विचारों को सुना, सहमत हुए, पर कहा कि ऐसा उपचार पेटेंट नहीं किया जा सकता और बहुत सस्ता है अतः कोई कैंसर संस्था इसे न छुएगी. कैंसर से जीवन यापन करने वाले अधिक है, उससे मरने वाले कम. तुम सिर पटकते रहोगे.
परिचित – कोई कैंसर रोगी यह सुनेगा तो दंग रह जाएगा. वर्तमान उपचार तो “काटो, जलाओ और विष दो” (slash, burn & poison) कहे जाते हैं. क्या उनमें कोई बदलाव न आ पाएगा? मात्र इसलिए कि सफल मृदुल कैंसर चिकित्सा से अस्पतालों की कमाई कम हो जाएगी? पर लगता है आप प्रयत्नशील रहे, सिर पटकने को तत्पर...
लेखक – हाँ, मैंने 1994 में ही लिखा अमेरिका के सभी प्रधान कैंसर केन्द्रों (“comprehensive cancer centers”) को – जो 8 थे उस समय – तथा राष्ट्रीय कैंसर संस्थान NCI को. फोन भी किए. कुल 3 ने उत्तर दिया. दो पत्रोत्तर बहुमूल्य थे, और आज भी हैं – विशेषतः इसलिए कि बाद में कभी ऐसे किसी कैंसर केन्द्र ने उत्तर न दिया हालांकि उनकी संख्या 8 से बढ़कर 51 हो गई है अब.
एक उत्तर मिला MD Anderson Cancer Center, Houston से, जो अमेरिका का चोटी का कैंसर अनुसंधान केन्द्र माना जाता है. उस लम्बे पत्र के कुछ अंश:
“… very interesting... the [electrotherapy] information… are interesting and deserving of further investigation...
We will keep the material on file should opportunities arise to study the effects of electric currents on regression of tumors.”
(“...अत्यन्त रोचक”... [विद्युचिकित्सा] जानकारी रोचक है तथा अधिक जाँच-पड़ताल योग्य है...
हम इस सामग्री को संचित रखेंगे उस अवसर के लिए जब ट्यूमर के विघटन पर विद्युत धाराओं के प्रभावों का अध्ययन हो.")
वह "अवसर" 25 से अधिक वर्षों में नहीं आया है, हालांकि विद्युचिकित्सा का अध्ययन के लिए आवश्यक धन न्यूनतम होगा.
दूसरा उत्तर राष्ट्रीय कैंसर संस्थान NCI का था. उन्होंने भी मेरे विचारों को “अत्यन्त रोचक” कहा और लॉस एंजिलिस के पास ही स्थित City of Hope Medical Center के डा. चू से मिलने का सुझाव दिया जो कैंसर पर बिजली के प्रयोग कर रहे थे.
मैं तपाक से उनसे मिलने गया. वे विद्यु-रसायनी (electrochemistry) द्वारा कैंसर का उपचार कर रहे थे, प्रायः चीन जाकर वहाँ के रोगियों का. उन्हें किंचित सफलता मिल रही थी. डा. चू ने अपने सहकर्मी और मित्र डा. येन से परिचय कराया जो संयोगवश RnR किण्वक पर शोध कर रहे थे. वे मुझसे सहमत हुए कि कैंसर उपचार हेतु मात्र विद्युचिकित्सा चाहिए जहाँ रसायनी न हो, ताकि मुक्त-मूलक नष्ट हो सके. उन्होंने यह भी माना कि कैंसर का सूत्रपात्र इसी किण्वक पर हो सकता है. हमने सहयोग की योजना बनाई ताकि शोध आगे बढ़ सके.
लौटते समय मैं मानो आकाश में उड़ रहा था. पर दस दिन बाद ही मैं धरती पर आ गिरा. City of Hope प्रबंधकों ने सहयोग को निषेध कर दिया, क्योंकि ऐसी थेरेपी उनके अस्पताल “रोगियों को नहीं लाएगी”. ‘रोगियों’ से उनका आशय ‘पैसे की थैलियां’ था. मुझे डा. बैकर की कही बात याद आई.
परिचित – सब जानते हैं कि अमेरिका में धन लोलुपता कुछ अधिक है. अन्य देशों की कैंसर संस्थाओं को सम्पर्क किया कभी?
लेखक – कभी? न जाने कितनी बार.
मैं लगभग तीन दशक के हर प्रयास का वर्णन नहीं कर सकता. उसमें बहुत समय लगेगा. कुछ प्रमुख घटनाओं, कुछेक सोपानों की बात ही पर्याप्त होगी – इस संघर्ष की भीषणता का बोध कराने के लिए
सन् 1997 में एक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में मेरा आलेख छपा – Targeting a key enzyme in cell growth: a novel therapy for cancer (कोशिका वृद्धि के केन्द्रीय किण्वक को लक्ष्य बनाना: कैंसर की नूतन चिकित्सा). मैंने उसकी प्रति विश्व के 300 से अधिक कैंसर संस्थानों को भेजी – सहयोग के अनुरोध के साथ ताकि इस उपचार विधि के parameters या प्राचल निर्धारित हो सकें. उत्तर दस प्रतिशत से कम ने दिया. यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन के 8 कैंसर केन्द्रों में से 7 ने उत्तर दिया और कहा कि उनके पास इस विधि पर शोध करने की सामग्री-सुविधा (facilities) नहीं है. (यों इनका जुटाना बहुत सहज होता.) 8वें के पास facilities थी क्योंकि वे हाल ही में ऐसे विषय पर शोध-पत्र छाप चुके थे; वह केन्द्र मौन रहा.
केवल एक संस्थान ने मेरे साथ मिलकर शोध करने की इच्छा व्यक्त की. वह था भारत का, मुम्बई का टाटा मेमोरिअल अस्पताल. डा. सरीन से पत्र व्यवहार हुआ परन्तु उपयुक्त यन्त्र बनाने के दौर में ही, एक वर्ष के अन्दर, उस अस्पताल की इच्छा जाती रही.
परिचित – अब क्या विकल्प बचे थे आपके पास?
लेखक – कई वर्षों की हताशा के पश्चात 2003 में मैंने उपचार का यह जाल-स्थल (www.cancer-treatment.net) निर्मित किया. उपचार को GEIPE (Gentle Electrotherapy to Inhibit a Pivotal Enzyme) नाम दिया. ऐसे कैंसर जो बाहर से दिखते हों – चेहरे पर होने वाले लगभग सभी – इस विधि द्वारा घर-बैठे उपचारित किए जा सकते हैं. कुछेक कैंसर रोगी सम्पर्क करने लगे. उनकी माँग पर साधारण सा उपचार यन्त्र बनाया जिसमें सतत् सुधार करता रहा. कुछेक लोगों ने यन्त्र मंगाया. उन प्रारम्भिक उपकरणों से किसी के कैंसर का रिसना रुका, किसी के कैंसर का दर्द गया. फिर सन् 2005 में नाइजीरिया के एक डाक्टर ने मेरा यन्त्र मंगवाया जिसमें उसके बिजली-के-जानकार मित्र ने संशोधन किया. उसके द्वारा 2007 में एक स्त्री के तालू के कैंसर की सफल चिकित्सा हो सकी. देखें ये चार चित्र :
अगले वर्ष 2008 में, फ्लोरिडा (अमेरिका) के एक इंजीनियर ने अपने 93 वर्षीय ससुर के चेहरे के कैंसर को इस विधि से मिटा दिया. (उन्होंने मेरा साधारण यन्त्र नहीं मंगाया, स्वयं इलोक्ट्रोनिक यन्त्र बनाया.) देखें ये चार चित्र :
परिचित – ये चित्र स्पष्टतया आपके उपचार को कारगर सिद्ध करते हैं. आपने अपने जाल-स्थल पर लगाए होंगे. अब तो और अधिक कैंसर रोगियों ने सम्पर्क किया होगा?
लेखक – वास्तव में ऐसा न हुआ. तब तक इंटरनेट पर कैंसर के इतने अधिक जाल-स्थल बन गए थे कि मेरे जाल-स्थल पर आवागमन कम हो गया. मेरे पास संसाधन न थे कि विज्ञापन दे सकूँ.
पर अब मैंने इलोक्ट्रोनिक उपकरण बनवाया और 2010 में भारत आया. कैंसर के कई डाक्टरों से मिला. केवल एक डाक्टर ने, जिनका आगरा में बहुमंजिला कैंसर अस्पताल है, सहयोग दिया. दो रोगी मिले.
पहले रोगी को गाल-होठ का कैंसर था. वह कीमोथेरेपी के 12 दौरों से गुजर चुका था. मेरे उपचार से उसमें उत्तरोत्तर सुधार आने लगा. वह अब खाना चबा सकता था. देखें यह चार चित्र :
पर चौथे सप्ताह में अपने गाँव जाने पर उसे संक्रमण (infection) रोग लगा. बहुतेरे कीमो के कारण उसके शरीर का प्रतिरक्षी तंत्र (immune system) अत्यन्त दुर्बल था. स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा. 5वें सप्ताह थेरेपी बंद करनी पड़ी.
दूसरे रोगी की दाहिनी पलक के ऊपर बड़ा ट्यूमर था. उपचार से ठोस कैंसर धीरे-धीरे गलता गया. देखें यह चार चित्र :
पर इन दो रोगियों को स्वस्थ होते देखने के बाद उस अस्पताल ने अन्य रोगी न दिए. (फिर भी मैं उन डाक्टर का अत्यन्त आभारी हूँ उन दो माह के सहयोग के लिए, जैसा मुझे किसी अन्य स्थान पर न मिल सका.)
परिचित – फिर कहाँ हाथ पाँव मारे आपने?
लेखक – सन् 2010 में टाटा मेमोरियल अस्पताल से दुबारा संपर्क किया. इस बार उपचारित रोगियों के चित्र भेजे. उन्होंने फिर उत्तर दिया. अस्पताल के निर्देशक ड'क्रूज़ (Dr. Anil K. D'Cruz) ने मेरे साथ ईमेल का आदान-प्रदान शुरू किया. मैंने उनके विभिन्न प्रश्नों का उत्तर दिया. फिर उन्होंने अचानक वार्तालाप बन्द कर दिया. मैंने 9 ईमेल भेजे थे, उन्होंने 7.
टाटा मेमोरियल अस्पताल ने इस उपचार में दो बार रुचि दिखायी, पर दोनों बार वे ठिठक गए. यह व्यवहार बताता है कि वे कैंसर की बेहतर चिकित्सा खोजने को उत्कंठित हैं और मेरी उपचार विधि उन्हें तर्कपरक लगती है, पर इस क्रांतिकारी उपचार के स्थापित होने पर जो आमूलचूल परिवर्तन आयेंगे, उनके बारे में सोचकर वे उद्विग्न हो उठते हैं और हाथ खींच लेते हैं.
सबसे महँगी चिकित्सा यदि सबसे सस्ती हो जाए तो चिकित्सालय भला क्यों न चिंतित होगा? कौन चाहेगा आमदनी में ऐसी भारी गिरावट? कीमो (chemo) और विकिरण (radiations) देने वाले क्या करेंगे? कितनों को नई नौकरी ढूंढनी होगी?
याद आता है पिछली सदी के प्रख्यात अमेरिका समाज-सुधारक और साहित्यकार अप्टन सिंक्लेयर (Upton Sinclair) का कथन :
“It is difficult to get a man to understand something, when his salary depends on his not understanding it.” (एक आदमी के लिए कुछ समझाना कठिन है, यदि उसका वेतन उसके न समझने पर निर्भर करता हो.)
दूसरी ओर, कैंसर पीड़ित बिफर उठेंगे यह सुनकर कि उनकी यंत्रणा कम करने की, उनको संभवतः निरोगी बनाने की, चिकित्सा इसलिए उपलब्ध नहीं है कि उससे अस्पतालों का लाभ कम हो जाएगा, कइयों को नौकरी बदलनी पड़ेगी...
सारे नैतिक मूल्य कैंसर-ग्रस्तों के पक्ष में हैं. इस उपचार के स्थापित होने पर कैंसर संस्थाओं की आर्थिक उथल-पुथल 1-2 वर्ष की होगी. लोग नई नौकरियां पा लेंगे. डाक्टरों का भला किस देश में आधिक्य है? और फिर अधिकांश कैंसर आन्तरिक ऊतकों (tissues) के होते हैं. उनके लिए अस्पतालों की, डाक्टरों की आवश्यकता सदा रहेगी.
परिचित – आपके अनुभवों के आधार पर यह आशा करना व्यर्थ लगता है कि कोई कैंसर अस्पताल स्वतः इस उपचार को अपनाएगा, रोगियों को उपलब्ध कराएगा. केवल सामाजिक दबाव से स्थिति बदल सकती है.
वार्तालाप लम्बा खिंच रहा है. अब आप पिछले दस-एक वर्षों में यदि कुछ महत्वपूर्ण घटा हो, उसे संक्षेप में बता दें.
लेखक – 2012 में मैंने इस उपचार की कम्पनी कैलिफ़ोर्निया में पंजीकृत कराई जिसे केन्द्रीय राजस्व विभाग ने Non-Profit (भारतीय NGO के समकक्ष) का प्रमाण-पत्र दिया.
2014 में मेरा दूसरा आलेख Low-Level Electric Current and Cancer - A Promising, But Languishing Non-Toxic Cancer Therapy (नरम विद्युत प्रवाह और कैंसर - एक आशाजनक, पर उपेक्षित मृदुल कैंसर चिकित्सा) एक वैज्ञानिक शोध-पत्रिका में छपा.
2021 में लिखे मेरे तीसरे आलेख Biochemistry – Not Oncogenes – may Demystify and Defeat Cancer को “अर्ध-प्रकाशित” कहा जा सकता है. वह स्विट्ज़रलैंड के शोध लेखों के जाल-स्थल preprints.org पर उपलब्ध है. उसमें यह उल्लेखनीय वर्णन भी है – हाल ही की शोधों से प्रकट है कि retinoblastoma (शिशु-नेत्रों के कैंसर) का एक वंशाणु से सीधा सम्बन्ध होने का कारण भी RnR किण्वक है. वह वंशाणु RnR के उत्पादन पर नियंत्रण रखता है. अतः उसके न होने पर RnR का बाहुल्य हो जाता है और कैंसर प्रारम्भ. वायरस (virus) से होने वाले गर्भाशय-ग्रीवा (cervix) के कैंसर में भी RnR किण्वक की ऐसी ही भूमिका है.
अब अन्त में मैं अमेरिकी कैंसर संस्थाओं की मनोवृत्ति का वर्णन कर दूँ :
“हम चुपचाप कैंसर पर, अति श्रमसाध्य, अति विषम, शोध कर रहे हैं, जिसके लिए निरन्तर बढ़ती हुई धन राशि की आवश्यकता है. कैंसर कोई हँसी ठट्ठा नहीं है. लेखक डा. मुखर्जी ने इसे “व्याधिओं का सम्राट” (The Emperor of Maladies) कहा है. यों तो हर जैववैद्यकी (biomedical) शोधपत्रिका में कैंसर पर आलेख छपते है, 350 से अधिक मान्य शोध पत्रिकाएं केवल कैंसर को समर्पित हैं. हम हर माह हजारों आलेख छापते हैं. उधर अधिकांश भैषजिक (pharmaceutical) संस्थाएं कैंसर की नई औषधि बनाने-खोजने पर कटिबद्ध हैं. हम रोगियों को स्वस्थ करने के प्रयास में महँगे से महँगे उपचार करने को तत्पर हैं. वश चलेगा तो अनन्त काल तक हम ऐसा ही करते रहेंगे. तुम कौन आए हो भांजी मारने?”
इसी कारण सामाजिक दबाव से इस कैंसर उपचार के प्रकाश में आने की संभावना भारत में कहीं अधिक है, अमेरिका की तुलना में.
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